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Friday, June 13, 2025

भूमि_सूता मां सीता ने महा विक्रमी वायुपुत्र हनुमान जी से पूछा,,बेटा विशाल लंका तो सारी जल गई पर तेरी पूंछ तक न जली..!!??

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जहां स्वयं भूमिपुत्री ने आशीर्वाद दिया हो वह कैसे इन पांच भूतों से नष्ट हो सकता है क्योंकि हनुमान जी स्वयं पांच महाभूतों से भी ऊपर के थे,इसलिए उन्हें एकादश रुद्र भी कहा गया है।अब जो पंचतत्वों से ऊपर है वह कैसे भभूत बन सकते हैं।

इसलिए कहा गया कि हनुमान जी कलयुग में भी विराजमान है जिंदा है ,और जब तक धरती आकाश पवन अग्नि और जल विद्यमान है तब तक हनुमान जी सदा सृष्टि में स्थित रहेंगे।भक्ति के लिए सृष्टि की नहीं दृष्टि की जरूरत है लेकिन हनुमान जी तो दृष्टि से भी ओझल हो जाते हैं। जिनका बल असीमित हो””(अतुलित बल धामम)”!और जो किसी भी रूप में अपने आप को बदल सकता है”(मसक समान रूप कपि धरी)”जो अष्ट सिद्धि नव निधि से परिपूर्ण है”(कनक भूधरा कार शरीरा)”उसे कौन बस में कर सकता है उसे कौन रोक सकता है।

वह जहां चाहे वहां जा सकते हैं,जो स्वयं पंचमुखी स्वरूप में है दिशाएं चार ही होती है(चतुर्दिश )उनकी दिशाएं तो पांच है।वह यम कुबेर के साथ पाताल से भी विजय हासिल कर सकते हैं,पूजा की माला में विद्यमान रह सकते है। इसलिए जब राम राज्याभिषेक में हनुमान जी को मोतियों की माला दिया गया तो वो उसे कुतर _कुतर के देखने लगे,पूछने पर कहा इसमें राम विद्यमान नहीं है मेरे किस काम के!?इतना सब होने के बावजूद भी हनुमान जी विनय मूर्ति थे “(रामदूत मैं मातु जानकी)”।

चलिए हम आज आपको हनुमान जी की विनम्रता के दो प्रसंग बताते है,जो विपत्ति और संपत्ति दोनों में एक भाव हैं ,,
पहला प्रसंग लंका दहन
लंका दहन बाद मां सीता ने पूछा
हनुमान, बेटा! एक बात बताओ, जब पूरी सोने की लंका जल गई, तो तुम्हारी पूंछ कैसे बच गई? वह भी तो उसी पावक में थी।”
श्री हनुमान जी ने कहा कि माता! लंका तो सोने की है और सोना कहीं आग में जलता है क्या?
फिर कैसे जल गया? मां ने पुनः पूछा… ?
हनुमान जी बोले– माता! लंका में साधारण आग नहीं लगी थी .. पावक थी! (पावक जरत देखी हनुमंता)
पावक ••••• ?
हाँ मां ••••• !
ये पहेलियाँ क्यों बुझा रहे हो, पावक माने तो आग ही है।
हनुमान जी बोले– न माता! यह पावक साधारण नहीं थी।
फिर ..
“जो अपराध भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई”
यह राम जी के रोष रूपी पावक थी जिसमे सोने की लंका जली।
तब जानकी माता बोलीं– बेटा ! आग तो अपना पराया नहीं देखती, फिर यह तो बताओ•••यह तुम्हारी पूंछ कैसे बच गई? लंका जली थी तो पूंछ भी जल जानी चाहिए थी ।
हनुमान जी ने कहा कि माता! उस आग में जलाने की शक्ति ही नहीं, बचाने की शक्ति भी बैठी थी।
मां बोली — बचाने की शक्ति कौन है?
हनुमान जी ने तो जानकी माता के चरणों में सिर रख दिया ओर कह कि माँ ! हमें पता है, प्रभु ने आपसे कह दिया था। तुम पावक महुं करहु निवासा- – उस पावक में तो आप बैठी थीं।
तो जिस पावक में आप विराजमान हों, उस पावक से मेरी पूंछ कैसे जलेगी? माता की कृपा शक्ति ने मुझे बचाया, माँ! आप बचाने वाली हो, आप ही भगवान की कृपा हो ..
तब माँ के मुह से निकल पड़ा ..
अजर अमर गुणनिधि सुत होहू, करहु बहुत रघुनायक छोहू”
“वत्स! तुमने अपने जीवन में जो भक्ति और सेवा की है, वह अनमोल है। तुम्हें प्रभु श्रीराम का सदा अनुग्रह मिलता रहे। मैं आशीर्वाद देती हूं—
तुम सदा गुणों के भंडार रहो, और प्रभु श्रीराम का अनुग्रह तुम पर हमेशा बना रहे।”
दूसरा प्रसंग
लंका विजय के बाद, श्री हनुमान जी माता जानकी के चरणों में उपस्थित हुए। माता स्नेह भरे स्वर में बोलीं,
“हनुमान, बेटा! एक बात बताओ, जब पूरी सोने की लंका जल गई, तो तुम्हारी पूंछ कैसे बच गई? वह भी तो उसी पावक में थी।”
हनुमान जी ने सिर झुकाया और भाव-विभोर होकर माता जानकी के चरणों में अपना मस्तक रख दिया। उनकी आंखों से प्रेमाश्रु बहने लगे। उन्होंने विनम्रता से कहा,
“माता! मैं क्या कहूं? सच तो यह है कि मुझे कुछ करना ही नहीं पड़ा। प्रभु श्रीराम ने पहले ही आपको निर्देश दिया था— ‘तुम पावक महुं करहु निवासा।'”
माता जानकी ने चौंककर पूछा,
“इसका क्या अर्थ, बेटा?”
हनुमान जी ने सिर उठाकर उत्तर दिया,
“माँ! जब रावण ने मेरी पूंछ में आग लगवाई, तो वह पावक साधारण आग नहीं थी। उसमें आपकी कृपा शक्ति विराजमान थी। आप स्वयं उस पावक में निवास कर रही थीं।
जिस आग में आप विराजमान हों, वह आग मुझे कैसे जला सकती है? यह आपकी कृपा शक्ति ही थी जिसने मेरी पूंछ को बचाया। माँ, आप केवल भगवान की संगिनी नहीं हैं, आप उनकी कृपा का साकार रूप हैं। आपका सतीत्व और प्रेम हर भक्त की रक्षा करता है।”
यह सुनकर माता जानकी की आंखों में करुणा और स्नेह का भाव उमड़ आया। उन्होंने हनुमान जी के सिर पर अपना हाथ रखा और कहा,
“वत्स! तुमने अपने जीवन में जो भक्ति और सेवा की है, वह अनमोल है। तुम्हें प्रभु श्रीराम का सदा अनुग्रह मिलता रहे। मैं आशीर्वाद देती हूं—
‘अजर अमर गुणनिधि सुत होहू, करहु बहुत रघुनायक छोहू।’
तुम सदा गुणों के भंडार रहो, और प्रभु श्रीराम का अनुग्रह तुम पर हमेशा बना रहे।”
हनुमान जी ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया,
“माता! मेरे जीवन का एक ही उद्देश्य है— प्रभु श्रीराम और आपके चरणों की सेवा करना। मैं कुछ नहीं, केवल आपकी कृपा और प्रभु की इच्छा का माध्यम हूं।”
इस दिव्य संवाद को सुनकर वहां उपस्थित सभी देवता और भक्त हनुमान जी की विनम्रता और माता जानकी की करुणा का गुणगान करने लगे। इस दृश्य ने सभी के हृदय को भक्ति और प्रेम से भर दिया।

(प्रसंग अन्य स्त्रोतों से ली गई है)

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